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  • i

    गीता रश्मि

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  • ii

    EDUCREATION PUBLISHING

    RZ 94, Sector - 6, Dwarka, New Delhi - 110075 Shubham Vihar, Mangla, Bilaspur, Chhattisgarh - 495001

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    ISBN: 978-1-5457-1896-4

    Price: ` 195.00

    The opinions/ contents expressed in this book are solely of the author and do not represent the opinions/ standings/ thoughts of Educreation.

    Printed in India

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  • iii

    गीता रश्मि

    रास लाल

    EDUCREATION PUBLISHING (Since 2011)

    www.educreation.in

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  • iv

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  • v

    समर्पण

    अपने विश्व-पररिार के

    उन सब को

    जो

    प्रभु-प्रकाश-सविि-सागर में

    नहाने को ििावयत

    रहते

    हैं

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  • vi

    अनकु्रमणणका

    क्र. अनुक्रम पृष्ठ

    1. मेरे मागग को ज्योवतमगय कर 1

    2. अंधकार के अथाह सागर में 2

    3. हृदय में विराजमान दुगुगण 3

    4. तेरी उड़ती चरण-धूवि की ज्योवत 4

    5. मेरी आँखो ंमें आँसू नही ं 5

    6. वनजगन वनशा के अंक में 6

    7. प्रखर रश्मि की िृवि कर 7

    8. हृदय–व्योम का आच्छादन 8

    9. बेसहारा बटोही की तरह 9

    10. धरती के कंटकपूणग जंगि में 10

    11. मेरे हृदय को सूना कर दे 11

    12. शोक और हर्ग से उत्पन्न अंधकार 12

    13. चरण पकड़ने को व्याकुि 13

    14. मनोकामनाएं 14

    15. सोया रहा मैं गहरी नीदं में 15

    16. पशुता की कैसी आग है यह 16

    17. आँसू पोछंने में अनंत आनंद 17

    18. आसश्मि-सविि का मीन 18

    19. कामनाओ ंको कने्ध पर िादकर 19

    20. सपनो ंकी तस्वीर ओझि होने दे 20

    21. वकतनी राहें 21

    22. असहाय के आँसू में तेरा प्रकाश 22

    23. पसरती िताओ ंको जिा दे 23

    24. भटकते को याद आओ 24

    25. सांसाररक अवभिार्ा को भस्म कर दे 25

    26. तेरे चरण-कमि की छाया में 26

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  • vii

    27. अदृश्य अनंत चेतना 27

    28. कैसा पािस काि है! 28

    29. हृदय की धरती 29

    30. पेड़ की तरह जीने की शश्मि दे 30

    31. सोयी अिस्था में कैसे घूमता हँ 31

    32. अजे्ञय को आमंत्रण वदया हँ 32

    33. अंधकार की वकरणें 33

    34. कीचड़ में मेरे सबकुछ गंदे हो गए 34

    35. शोक-गीत सुनने को 35

    36. ताप िािी शीति बयार हृदय में 36

    37. ज्ञान -प्रकाश का बादि उमड़ने दे 37

    38. दुवनया के वमथ्या दृश्य 38

    39. अवभिार्ाओ ंके िृक्ष की छाया में 39

    40. कोई नही ंआज साथ में आया है 40

    41. भटकने के क्रम में बैठी मैि 41

    42. मुझे अवभिार्ा से दूर रख। 42

    43. उनकी याद तो रहती ही नही ंहै 43

    44. सूरज की वकरणो ंकी आँधी िा दे। 44

    45. आकाश के नीचे वनजगन स्थान में 45

    46. जिाकर दीप हृदय -पंकज पर 46

    47. आँखें वनहार रही है तेरी राह 47

    48. उसर भूवम में पौधा उगने दे 48

    49. वचंतन-आनंद का फूि श्मखिे 49

    50. तारे की ज्योवत 50

    51. अन्धा बनकर ही आता हँ 51

    52. नहाने की इच्छा नही ंहोती है 52

    53. अंधकार -सागर की आँधी में दीप जिाने 53

    54. पत्ती विहीन काँटे िािा उगता पौधा 54

    55. हृदय को उस प्रसून से भर दे 55

    56. तेरी रश्मि स्पशग से पािन होकर 56

    57. दुवनया के दुगुगणो ंकी धूवि-परतें 57

    58. इच्छा के दे्वर् -अंधकार 58

    59. वमथ्या तस्वीर ओझि हो जाती है 59

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  • viii

    60. आँसू से कब धो सकँूगा 60

    61. तुम ही अपनी ममता दे सकते हो 61

    62. वकतनी िंबी रात रच वदये हो 62

    63. तुझे भी उदासी स्पशग कर िेगी 63

    64. सूरज अकेिे वमटा देता है अंधकार 64

    65. वमथ्या मुस्कान की आग में 65

    66. सांसाररक आग में जिते रहकर 66

    67. अब मेरी नजर तुझ पर 67

    68. यह स्मरण नही ंरहता 68

    69. संध्या में दीप नही ंजिाया 69

    70. स्मरण 70

    71. कब तक मैं भीगता रहँगा 71

    72. द्वार पर झांककर िौट जाते हो 72

    73. ममता शून्य हृदय जीवित नही ंहै 73

    74. तेरे पास जाने में संकोच होगा 74

    75. वबछुड़े को कब िगने दोगे गिे 75

    76. मेरे हृदय आँगन में आ जाओ प्रभु 76

    77. आँखो ंके बीच में विराजते हो 77

    78. चरण-कमि-धूवि की अमर छाया 78

    79. आँखो ंमें केिि पािस-ऋतु 79

    80. चरणो ंमें रहने का आशीर् 80

    81. आओ प्रभु सागर के वकनारे 81

    82. शाम होते ही विदा हो गया 82

    83. दे्वर्-दुगुगणो ंको सहयोगी बना िेता हँ 83

    84. विश्राम-गृह बनाने में व्यस्त रहते हो 84

    85. मेरे अंधकार को छूना ही नही ंचाहता 85

    86. याद आती रहे केिि तेरी ही मुझे 86

    87. मेरी राह में कहाँ नजर आते हो 87

    88. कैसी हिा बहती आ रही है 88

    89. अब मेरे विराम की आशा कैसे 89

    90. आँखें जो कभी पिकें नही ंउठायी ं 90

    91. आँसू बरसे केिि तेरे विए प्रभु 91

    92. राह को ओझि कर देती है 92

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  • ix

    93. काया झुिसकर स्याह हो गयी 93

    94. बहुत देर से यह सपने देख रहा हँ 94

    95. देह पर क्या सब चीजें िेप िी है 95

    96. मैं छू सकँू से्नह से सबको 96

    97. प्रभु, तू मुसु्करा जाओगे 97

    98. आह की आग से नही ंजिता 98

    99. अब इन आँखो ंको विश्राम दे 99

    100. आँसू सूखें पर तेरी याद नही ं 100

    101. तेरे प्रकाश में विचरता रहे सदा 101

    102. अंधकार वनवमगत देह में हृदय 102

    103. शाश्वत घर हेतु कभी सोचा नही ं 103

    104. हृदय अवभिार्ा का अवतवथ गृह 104

    105. कैसी शाम आयी है 105

    106. वकतनी िंबी रात कािी 106

    107. बादि की अवभिार्ा 107

    108. मेरी आत्मा कहाँ अकुिाती है 108

    109. हृदय पर सागर को उतार दे 109

    110. मेरी अज्ञानता की बसंत-ऋतु 110

    111. असीम आिोक में िीन होने को 111

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  • x

    प्राक्कथन:

    अवद्वतीय अद्भुत रचनाकार विवचत्र और अनोखे वचत्र इस धरती

    के कंटक पूणग जंगि में अंवकत करते और वमटाते रहते हैं। यह

    दृश्य देखकर मेरे हृदय में उदासी की कािी घटा छा जाती है,

    िेवकन कािी घटा की आयु बहुत अल्प होती है। अल् पायु होने के

    कारण अदृश्य हो जाती है। मग्न होकर मैं जंगि में भ्रमण करने

    िगता हँ। सारे स्मरण वमट जाते हैं। एक वदन मैं भी वमट जाऊँगा,

    इस पर मेरी नजर नही ंजाती है। कािी अंधेरी रात में, मैं वनरंतर

    भ्रमण कर रहा हँ, इस विर्य पर कभी कुछ नही ंसोचता हँ।

    अद्भुत किाविद् ने बड़ी ही अनोखी विवध से इस कंटकपूणग

    सघन जंगि में भ्रमण करने िािे जीिो ंके विए दो प्रकार की रातें

    सजायी हैं। एक कािी रात और एक उजिी रात। उजिी रात के

    विए सूरज और कािी रात के विए चाँद को आसमान में िगाये

    हैं। चाँदिािी रात में कभी अंधकार तो कभी प्रकाश। यह रात

    भ्रमण करनेिािो ंको संकेत करती है वक अंधकार आनेिािा है,

    प्रकाश के विए प्रयत्नशीि रहो। सूरज िािी रात यह संकेत करती

    है वक जहाँ शाश्वत प्रकाश है, िहाँ के विए वनमगि-विमि हृदय से

    ईश्वर का स्मरण करो। इस धरती के सघन िन में कभी विहान

    नही ंहोता है। यह धरती अंधकार का अपना स्थाई वनिास स्थि

    है।

    मनुष्य ईश्वर की सिगशे्रष्ठ रचना है। उन्ोनें मनुष्य को वबलु्कि ही

    अपने वनकट रखा है। इस थोड़ी सी दूरी को वमटाने के विए अपने

    हृदय में व्याप्त कीचड़ को धो डािने के विए अपनी आँखो ं के

    आँसू प्रभु के चरण-कमि में समवपगत करने को ‘गीता रश्मि’ की

    धरती पर अपनी दृवि को पसरने दें। हृदय में युगो ं से पसरे

    अंधकार को प्रकाश में पररणत करने के विये...

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  • xi

    पृथ्वी पर असंख्य राही अनवगनत

    राहो ंपर अविराम गवत से

    चिते आ रहे हैं

    कहाँ जाना है, यह स्मरण नही ं

    कहाँ से चिे, वबलु्कि याद नही ंहै।

    वदशा का भी ज्ञान नही ं

    केिि चिते रहते हैं।

    वदन में चि रहे हैं या रात में ,

    यह भी उन् हें मािूम नही।ं

    ये देखते भी नही ंहैं।

    बड़े ही विवचत्र बटोही हैं ये सब।

    इन बटोवहयो ंकी ऐसी श्मस्थवत देखकर इस

    गीता-रश्मि की

    रचना की गयी है

    रास लाल

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  • xii

    दो शब् द ...

    मेरे वमत्र श्री वसया राम जी, जो मेरी ही कंपनी में चाटगडग एकाउंटेंट

    हैं, ने आग्रह वकया वक मेरे वपताजी श्री रासिाि जी की कविताओ ं

    का संकिन प्रकाशनाधीन है। मैं चाहता हँ वक आप इस पुस् तक

    की समीक्षा में कुछ शब् द विखें। श्री वसया राम जी के अनुरोध पर

    मैंने पाण् डुविवप को कई बार पाा। बार-बार पाकर कविताओ ंके

    अमृतपान से मुझे जो रस प्राप् त हुआ िह अकथनीय है।

    श्री रासिाि जी ने जीिनपयंत अध् यापन कमग वकया है, जावहर है

    जो वजतना ज्ञान बांटता है िह उतना ही सीखता है। गं्रथो ंमें भी

    कहा गया है ‘विद्या ददावत विनयं’ और श्री रासिाि जी की प्रथम

    कविता संग्रह ‘गीता रश्मि’ की प्रत् येक कविता में विनय का भाि

    झिकता है। जैसा वक कविता संग्रह का नाम ही ‘गीता रश्मि’ है,

    पुस् तक के नाममात्र से पाठक यह जान सकते हैं वक यह मात्र

    कविता संग्रह ही नही ंबश्मल्क गीता के ज्ञान की गंगा है, एक प्रिाह

    है, वजसमें जो पाठक वजतना डूबेगा िह उतना ही अवधक

    आह्लावदत होता चिा जाएगा।

    सिगमान् य वस्ांत है वक जब कोई ् यश्मि ई् िरीय सत् ता से अपने

    आपको सन् नीकट महसूस करता है तो उसका मन कवि हो जाता

    है। सबसे ओजपूणग बात यह है वक िेखक वबना वकसी भय के

    धमग की सीाी पर चाकर समाज की विदू्रपताओ ंपर अपनी किम

    से प्रहार करते हैं। श्री रासिाि जी की कविताओ ं को पाकर

    अनुभूवत होती है वक बु् का ज्ञान और गीता का सार कविता की

    हर एक पंश्मि में समावहत है। जैसे-जैसे पाठक कविता के रस में

    डूबते जाते हैं यह आभास होता है वक िेखक को शायद आत् मज्ञान

    हो गया है और उस आत् मज्ञान का वद् य प्रकाश, कविता के रूप

    में सारे जगत को प्रकाशमान कर रहा है। कविताएँ छंदमुक् त है

    और तुकबंदी के नाम पर अनाि् यक शब् दो ंका चयन भी नही ं

    वकया गया है। सीधी और सरि कविताएँ जो सीधा पाठक के मन

    को उदे्ववित करती हैं।

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